बुधवार, 28 जुलाई 2010

आज मेरा ही हाथ वहा तक नहीं पहुचता ...

बरसों पहले चंद पंक्तियाँ कही पढ़ी थी ... उस वक़्त इतनी छोटी थी कि इन पंक्तियों का अर्थ नहीं समझ पाई थी .. किन्तु फिर भी पंक्तियाँ इतनी अच्छी लगी थी कि सीधे मन में कहीं गहरे तक पैठ गयी थी .. आज यू ही ये पंक्तियाँ याद आ गयी तो सोचा आप सभी को भी पढवा दूँ .हालाँकि मुझे ये पता नहीं है कि ये किन्होने लिखी है .. शायद अम्रता प्रीतम जी की हो .. आप में से किसी को पता हो तो जरूर बताये..



तेरे मेरे रिश्ते को मैंने रखा इतना उपर 
अपनों से , परायों से ...
रिश्तों से ,नातों से ..
रीतों से रिवाजों से ...
रस्मों से ,कसमों से ...
सच से , झूठ से ...
वर्तमान से , भूत से ...
आशा से , निराशा से ...
सुख से , दुःख से 
जीवन से , म्रत्यु से
हर चीज़ से इतना ऊपर 
कि आज मेरा ही हाथ वहा तक नहीं पहुचता ... 

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

कविता रूपी माला

कभी विचारों के प्रवाह में
बहते -बहते 
मिल जाते  हैं शब्द  रूपी मोती 
अनायास ही 
जिन्हें भावो- एहसासों रूपी धागे में पिरो कर 
बन जाती है कविता रूपी माला
सहज ही 






तो कभी  मिलते नहीं हैं शब्द 
खो जाते  हैं सारे एहसास और बिखर जाते हैं सब भाव यूं ही मन की भूमि पर 
चाहे करो प्रयास कितने ही....





सोमवार, 21 जून 2010

दुनिया का दस्तूर (अंतिम कड़ी )

          पंकज का मुह एकदम रुआसा हो गया . मेरे मन में कशमकश सी होने लगी कि मैं पंकज को हज़ार रुपये दे दू , या न दू ? क्योंकि उस वक़्त मेरी भी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , और वे हज़ार रुपये मेरे लिए बहुत मायने रखते थे , और दूसरी बात यह कि पंकज ने मुझ से तो पैसे मांगे नहीं थे , तीसरी बात यह कि पति से बिना पूछे पैसे देने में मुझे हिचक सी हो रही थी. मैंने अपनी इस इच्क्षा को वहा मौजूद एक मित्र को बताया तो वह बोलने लगी कि नौकरी छूटने के पश्चात पंकज से दोबारा मुलाकात होगी नहीं , ये तो तय ही है ..फिर पैसे कैसे वापस मिलेंगे ? इसीलिए तुम पैसे मत दो , और वह तुमसे थोड़े ही मांग रहा है , जो तुम इतना सोच रही हो ? लेकिन अंततः जीत मेरे मन की हुई , मैंने उसे हज़ार रुपये दे दिए , जो उसने बड़ी ही मुश्किल से लिए . उसके चेहरे से साफ दिख रहा था कि उसे मुझ से यू रुपये लेते हुए कितना कष्ट हो रहा है , वह मुझ से सिर्फ इतना ही कह पाया कि आपका एड्रेस दे दीजिये , पैसे का इंतजाम होते ही मैं लौटाने आऊंगा . मुझे उसको पैसे देते हुए अन्दर से जो सच्ची ख़ुशी और सुकून महसूस हुआ, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती . मुझे पूरा यकीं था कि वह ज़रूर मुझे पैसे लोटायेगा.

                 जिंदगी फिर अपनी रफ़्तार से चलने लगी .मैं पैसो वाली बात भूल    भी गयी थी कि एक दिन शाम को पंकज मेरा घर ढूँढ़ते हुए आया और जैसी कि मुझे उम्मीद थी, मन में पक्का विश्वास था उसके अनुसार ही  वह मेरे पैसे लौटाने आया था .. उसने मेरे पैर छू कर ,भीगी आँखों से मुझे धन्यवाद अदा किया और कहा कि वे पैसे उसके लिए बहुत ज्यादा जरूरी थे ,क्योंकि उसे फीस भरनी थी .

  जाते वक़्त उसने  मुझे बताया कि वह आगे की पढाई के लिए पुणे जा रहा है , उसके पिताजी ने खेती गिरवी रख कर उसकी आगे की पढाई का इंतजाम किया है .  उसने कहा कि "बस अब  अच्छे से पढ़ लिख कर कुछ बन जाऊ , अपनी खेती वापस छुडवा सकू, और माँ पिताजी को,भाई -बहन को  कुछ सुख दे सकू , यही मेरा उद्देश्य है और सपना भी "....आगे वह नहीं बोल पाया था लेकिन मैं पढ़ सकती थी कि एक सपना और उसकी आँखों में तैर रहा था और वह था नंदिनी के साथ जीवन के सफ़र में आगे बढ़ने का सपना..लेकिन कभी कभी इंसान की जिम्मेदारिया, मजबूरिया और हालात ही ऐसे हो जाते है , कि कुछ सपनों की कलियों को कुचल देना पड़ता है .. शायद यही ज़िन्दगी  है ....मैंने उसे शुभकामनाये देते हुए विदा किया .

             इसके बाद कभी उससे मेरा मिलना नहीं हुआ . जाने क्यों जिन्दगी के सफ़र में चलते चलते ऐसे कुछ लोग मिलते है , जो बड़े आत्मीय से लगते है पर  चूँकि उनसे कोई हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता इसी वज़ह से कोई संपर्क भी नहीं रह पाता और वही दूसरी और कहने को हमारे सम्बन्धी , सहकर्मी ,नाते रिश्तेदारों से हम संपर्क तो जरूर रखते है ,पर जरूरी नहीं कि वे सम्बन्ध आत्मीय हो .. एक दो सालों तक मैं अक्सर पंकज के बारे में सोचती रहती थी कि उसकी पढाई ख़त्म हो गयी होगी , नौकरी मिली कि नहीं , नंदिनी से उसकी शादी हो गयी हगी .. इत्यादि . फिर वक़्त के साथ साथ उसकी स्मृति भी धीरे धीरे मन के किसी कोने में दुबक गयी और मैं   ज़िदगी की राहों में आगे बढ़ने  हुए नए कार्यक्षेत्र और नयी नयी जिम्मेदारियों में व्यस्त हो गयी  और आज इतने सालों बाद अचानक उसे देख कर और यह जानकर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ  कि पंकज आज केंद्रीय कार्यालय में एक अच्छी नौकरी पर है ..
      
             उसने मुझ से निवेदन किया कि मैं उसके केबिन को देखने चलू , सब से विदा लेकर मैं उसके साथ उसके  केबिन में गयी . वहा पहुच कर मैंने उसके माँ- पिताजी सभी की कुशलता पूछी , उसने बताया कि पुणे में रहते हुए उसने अपनी पढाई पूरी की और साथ में छोटी मोटी नौकरी भी करता रहा , इसी बीच उसके पिताजी चल बसे और गिरवी रखी जमीन भी डूब गयी , माँ ने सिलाई कर के और छोटे मोटे काम करके किसी तरह घर चलाया , छोटे भाई बहन की पढाई के लिए मामा ने थोड़ी मदद की और पंकज भी वापस घर आ कर लगातार प्रतियोगी परीक्षा की तैयारियों में जुटा रहा और जो कोई भी नौकरी मिली करता रहा . ३-४ बार असफल होने के बाद अंततः उसका चयन हो गया और उसे २ साल पहले नागपुर में यह नौकरी मिल गयी . उसने बताया कि अब माँ , छोटे भाई बहन और मैं सब मिलकर यही क्वाटर में रहते है, करीब डेढ़ साल पहले  शादी भी हो चुकी है २  महीने की एक बिटिया  भी है ..

              यह सब सुनते ही मुझे एकदम से नंदिनी का ख्याल आया ..मैं समझ गयी कि पंकज की शादी किसी दूसरी ही लड़की  से हुई होगी, नहीं तो वह जरूर यह कहता कि "डेढ़ साल पहले मेरी  और नंदिनी की शादी हो चुकी है "..  मुझे कुछ पूछना अच्छा नही लग रहा था कि क्या कारण हुआ कि तुम दोनों की शादी नहीं हो पाई , लेकिन मन में जिज्ञासा जरूर थी .. इतने में वह खुद ही बोला .." दीदी , नंदिनी शायद मेरी किस्मत में  ही नहीं थी ,   उसके मम्मी पापा ने  उसकी शादी कही और कर दी , बेचारे और करते भी क्या , उन पर भी तो अपने बड़े -बुजुर्गो और रिश्तेदारों का दवाब था ,मैं जब अपने करियर के लिए संघर्ष कर रहा था ,मैं क्या कह सकता था ? यही हालत नंदिनी की भी थी  . मेरे ही एक दोस्त की दूर की रिश्तेदारी में उसकी शादी हुई है , इसीलिए उसके हाल-चाल पता चलते रहते है . शादी के वक़्त उसके पति की कपडे की दूकान थी , जो उसने शराब और सट्टे में पूरी बर्बाद कर दी उसकी भी एक बेटी और एक बेटा है .वह एक स्कूल में टीचर है , बेचारी अपने पति की गलत आदतों को सहते हुये  किसी तरह अपना और अपने बच्चों का गुजारा कर रही है ."....यह कहते हुए उसके चेहरे पर दर्द की लकीरे उभर आई थी . वह बोला , खैर , किस्मत के आगे हम कुछ नहीं कर सकते . लेकिन वह भी अपनी जिन्दगी में सुखी रहती तो मुझे कोई शिकायत न होती .."

            यह सब सुनकर मैं भला क्या कहती .. २-४ औपचारिक बातो के बाद  मैंने उससे विदा मांगी . वापस आते वक़्त मैं पंकज और नंदिनी के ही बारे में सोच रही थी , पंकज के कैरियर को लेकर जितनी ख़ुशी मिली थी , उतना ही दुःख नंदिनी के बारे में जान कर हुआ , वाकई में यदि जीवनसाथी   किसी बुरी आदत का शिकार है , तो जिंदगी नरक ही बन जाती है . बार बार मेरी आँखों के आगे नंदिनी का मासूम और प्यारा सा चेहरा डोल रहा था . मन में यह विचार आ रहा था कि क्यों किस्मत ने या यू कहे कि वक़्त ने दोनों को अलग अलग राहों पर चलने को मजबूर कर दिया . जैसा मजबूत और प्यार भरा रिश्ता उन दोनों के बीच था , क्या वैसा रिश्ता उनका अपने अपने जीवनसाथियों से कभी बन पायेगा ? पर शायद यही  दुनिया का दस्तूर है ..

पंकज की कहानी सुन कर मुझे बरबस ही वे चन्द पंक्तिया याद आ गयी, जो मैंने कही पढ़ी थी ...

" जिस पल से तुझ से बिछड़ा , खुद से भी कभी मिला ही नहीं ...
कहने को तो सब कुछ है मेरे पास एक तेरे सिवा , जिन्दगी से कोई और गिला भी नहीं .."

बुधवार, 9 जून 2010

दुनिया का दस्तूर



                                            
 हाल ही में मुझे एक केंद्रीय कार्यालय में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था . व्याख्यान ख़त्म होते ही वहा के एक अधिकारी मेरे पास आये और मुझ से बोले .." दीदी , आपने मुझे पहचाना.. ? मैं पंकज ..." 

            उनके इतना कहते ही मैं तुरंत उन्हें पहचान गयी. आज से लगभग ९-१० वर्ष पूर्व मैं जब एक हिंदी समाचार पत्र  की साप्ताहिक पत्रिकाओ में बतौर उप संपादक कार्यरत थी , तो पंकज वहा मेरी बनायीं हुई पत्रिकाओ को मराठी में अनुवाद करने का कार्य करता था , उस समय वह एक कॉलेज में पढ़ रहा था और पढाई का खर्च निकलने के लिए पार्ट टाइम नौकरी कर रहा था .   मैं भी वहा सुबह ९ से १२ बजे तक  पार्ट टाइम नौकरी करती थी ,उसके बाद १२-३० से शाम ६-०० बजे तक एक स्कूल में टीचर का कार्य करती थी. मुझे वहा से स्कूल जाने की जल्दी होती थी और पंकज को कॉलेज जाने की , तो हम लोग आपसी समझ और सहयोग रखते हुये जल्दी जल्दी सारा काम निपटा लिया करते थे .वे मेरे भी संघर्ष के दिन थे और उसके भी.. 



   पंकज मुझसे उम्र में ४-५ वर्ष छोटा था , वह मुझे शुरू से ही बहुत अच्छा लगता था .न जाने क्यों मुझे पंकज को देखते ही अपने भाई  जैसा स्नेह महसूस होता था हालाँकि उसकी शक्ल मेरे भाई से बिलकुल भी नहीं मिलती थी . 


    उस के माता पिता गाँव में छोटी सी खेती करते थे, और वह यहाँ कमरा लेकर नौकरी और पढाई कर रहा था .मुझे शुरू से ही ऐसे लोग बहुत अछे लगते है जो अपने बल -बूते पर , खुद मेहनत कर के आगे बढ़ते है .धीरे धीरे पंकज मुझसे खुल कर बात करने लगा ,और मुझे बहुत मान देने लगा . 


    अक्सर घर के सब काम निपटाते निपटाते मुझे नाश्ता करने का वक़्त नहीं मिलता था ,तो मैं अपना नाश्ता समाचारपत्र के दफ्तर पहुच कर ही करती थी . पंकज को मेरे हाथ का बनाया हुआ पंजाबी खाना बहुत अच्छा लगता , विशेषकर आलू के पराठे और मूली के पराठे . मैं उसके लिए एक दो पराठे एक्स्ट्रा रख लेती , तब वह बहुत खुश होता .  धीरे धीरे उसकी बातों से पता चला  कि वह
अपने घर में सबसे बड़ा बेटा है , एक छोटा भाई और एक छोटी बहन और है , जो गाँव में ही रहकर पढाई कर रहे है . उसका सपना था कि पढ़ लिखकर वह एक अच्छी सी नौकरी पा जाए , जिससे अपने माता पिता की अच्छी तरह सेवा कर सके और छोटे भाई बहनों को अच्छी तरह पढ़ा सकें .


     एक दिन पंकज मुझसे मिलवाने के लिए एक लड़की को लेकर आया , उसका नाम नंदिनी था . वह उसके ही गाँव की थी और दोनों बचपन से ही एक दूसरे को बहुत चाहते थे . फिलहाल नंदिनी भी इसी शहर में रह कर आगे की पढाई कर रही थी . मुझे नंदिनी बहुत ही अच्छी लगी , एकदम पंकज की तरह ही संस्कारवान ,सुसंस्कृत ,विनम्र . उन दोनों का रिश्ता आजकल के लड़के-लड़कियों के कथित प्रेम के तुच्छ रूप से बहुत हट कर था , उन दोनों के रिश्ते में एक सच्चाई थी , सच्चे और गहरे भाव से परिपूर्णता थी , परस्पर गहरी समझ का परिचय देता हुआ एक पवित्र रिश्ता था उनका . लगता था कि नंदिनी को भगवान ने सिर्फ पंकज के लिए ही बनाया है .

    नंदिनी एक दो बार और मुझ से मिलने के लिए आई . उसने मुझे बताया कि  उसके घर वाले भी पंकज को बहुत पसंद करते है , और उनकी शादी होने में कोई दिक्कत नहीं आने वाली है .मुझे बहुत ही अच्छा लगा यह जानकर और मैंने मन ही मन दोनों के विवाह के लिए दुआ की ..

                                                वक़्त गुजरता गया औरइसी तरह डेढ़ साल गुजर गया एक दिन रोज की तरह हम लोग जब ऑफिस आये तो पता चला  कि आज से इस समाचार पत्र की नागपुर में या अन्य किसी भी क्षेत्र में साप्ताहिक पत्रिकाए   नहीं बनायीं जाएगी ,बल्कि पत्रिकाए बनाने का सारा काम भोपाल स्थित मुख्यालय से ही होगा . इस तरह से हमारी उस नौकरी का अंत हो गया.

   वहा जो भी कर्मचारी थे सभी को बहुत दुःख हो रहा था, किन्तु पंकज सब से ज्यादा परेशां लग रहा था . सभी को तुरंत १५ दिनों का वेतन दे दिया गया किन्तु किसी कारण-वश   पंकज का वेतन  पूरा काट दिया गया, उसने सर से बार बार बहुत मिन्नतें की , वह बार बार बोल रहा था कि सर , सिर्फ हज़ार रूपये ही दे दीजिये , मुझे बहुत ज्यादा ज़रुरत है, लेकिन सर जरा भी नहीं पसीजे , उल्टा उसकी ४-५ दिनों की  अनुपस्थिति और काम में हुई उसकी कुछ गलतियों का हवाला देने लगे .

जारी....

सोमवार, 31 मई 2010

नाम ये कुछ गुम सा गया है..


बहुत दिनों से मन में गाना गूंज रहा था .... नाम गुम जाएगा ,चेहरा ये बदल जाएगा ,मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान है ------- इस गाने के शब्दों ने गूंजते गूंजते एक छोटी सी नज़्म की रचना कर दी ..
नाम ये कुछ गुम सा गया है ,
चेहरा भी ये बदल सा गया है ,
ना ही मेरी आवाज़ मेरी पहचान है ,
बोलो फिर मुझे कैसे ढून्ढ पाओगे ?
सिर्फ एक भीड़ का हिस्सा बना हुआ पाओगे .. 

शुक्रवार, 7 मई 2010

क्यों ऐसा होता है , कोई तो बतलाये ?



कभी तो रिश्तों में ढूंढे से भी न मिले अपनापन

तो कहीं सहज ही मिल जाते है मन

कभी परछाई भी उजाले की साथी बनकर अँधेरे में छुप जाये

तो कहीं वजूद किसी और का खुद में महसूस किया जाये

कभी जीवन में अपना पराया समझ में न आये

तो कहीं जन्म जन्म का बंधन सांसों से बंध जाएँ

क्योँ ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
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कभी तो चार पलों में जी उठते सारा जीवन

तो कहीं लगते सारे अजनबी से क्षण

कहीं फैला है चाहत का विस्तृत आकाश

तो कहीं रिश्तों में व्याप्त सूनापन और प्यास

कभी पुराने लम्हे फिर से नयें अहसासों में ढल जाये

तो कही रिश्तों के नए अर्थ नए रूप में बदल जाये

क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?

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कभी तो गंतव्य तक पहुच कर भी अर्थहीन रहते शब्द

तो कहीं बिन संचार के ही तरंगित हो उठते शब्द

कभी तो समझा समझा कर हार मान ली जाये ,

तो कही बिन कहे सुने ही सब समझ में आ जाये

कभी तो साथ साथ रह कर भी बने रहे पराये

तो कहीं लाख दूरियों के बीच भी मनो का मेल हो जाये ।

क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?

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कभी तो कहने सुनने को कुछ रहे नहीं शेष

तो कहीं कहने सुनने के लिए वक़्त कम पढ़ जाये

कहीं लगें मन का हर कोना सूना सूना

तो कहीं यादों के दरख़्त से टूटे लम्हे मन के आँगन में खिल जाये

कभी खुद की पहचान भी बन जाये अपरिचित

तो कहीं संपूर्ण अस्तित्व भी एक दुसरे में समाये

क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
कोई तो बतलाये ?


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सोमवार, 3 मई 2010

क्या लगातार पुराने लोगो से अचानक मिलना कोई संयोग है ?


२० अप्रैल से लेकर २२ अप्रैल तक लगातार मेरा अचानक ही बरसो पुराने बिछड़े हुए ऐसे लोगो से मिलना हुआ , जिनकी न मुझे कोई खबर थी ,न ही मुझे जिनका पता ठिकाना मालूम था और अचानक जिनसे मिलने के बारे में मैंने सोचा न था । हाँ ,उन लोगो को मैं याद जरूर करती थी ..आश्चर्य की बात यह है कि ये सब ऑफिस आने के दोरान ही हुआ , जबकि मैं अप्रैल माह में छुट्टी लेना चाहती थी , जो कि लाख कोशिशों के बावजूद मंजूर नहीं हुई और मुझे ऑफिस ज्वाइन करना पड़ा , जिस क्रम में ये संयोग लगातार घटित हुए।

२० अप्रैल को मेरे कार्यालय में काव्य पाठ प्रतियोगिता थी , जिसमे नागपुर के सभी केंद्रीय कार्यालयों से लोग भाग लेने आये थे , अचानक मेरा मिलना डॉ स्मिता दीदी से हुआ , जो चंद्रपुर में बी एड की पढाई के दोरान मेरे पड़ोस में रहती थी , उस अनजान शहर में वे एकदम अपनी लगती थी और उन्होंने मेरी बहुत मदद की थी , चंद्रपुर से आने केबाद में उनसे कोई संपर्क नहीं रहा और आज अचानक यहाँ नागपुर में उनसे मुलाकात हुई , पता चला कि उनका नागपुर में ही तबादला हो गया है और २ सालों से वे नागपुर में ही है ।
दूसरी घटना हुई २१ अप्रैल को , जब मुझे यहाँ के किसी केंद्रीय कार्यालय में काव्य पाठ प्रतियोगिता में बतौर निर्णायक जाने का मौका मिला , जबकि मैंने वहा दो एक दिन पहले आने के लिए असमर्थता जताई थी , पर वहा जाना संभव हो पाया ,वहा दुसरे निर्णायक के रूप में श्री सुनील कुमार पाल जी मौजूद थे जिनसे बात करने पर पता चला की वे भी मेरे ही गृह नगर के है , हालाँकि हमारी मुलाकात पहले नहीं हुई थी लेकिन वे मेरे बहुत से सहपाठियो के संपर्क में थे , और उन्होंने मेरी अपने पुराने मित्रो से तुरंत फ़ोन पर बात कराइ ।

इसके दुसरे ही दिन सुबह सुबह मेरी एक पूर्व परिचित से अचानक मिलना हुआ , जो किसी कार्य से नागपुर आई थी ,और जिनके यहाँ वे रुकी थी , वे मुझे जानते थे । इस तरह उनके माध्यम से वे मुझ से पुनः मिल पाई ॥

लगातार और अचानक हुए इन संयोगों से मैं यह सोचने पर मजबूर हो गयी कि क्या सब कुछ पूर्व निर्धारित रहता है कि कौन कब कहा किस से मिलेगा ? कभी तो एक ही स्थान पर रहते हुए लोग आपसमें नहीं मिल पाते और कभीहजारों किलोमीटर कीदूरी पर बसे हुए आपके किसी पुराने परिचित से आपकी मुलाकात सहज ही हो जाती है ... वाकई दुनिया गोल है ॥

"ये दुनिया वाकई गोल है ,
मिलना बिछड़ना फिर से मिलना एक अनोखा खेल है
कहीं तो साथ साथ रहते हुए मिलते नहीं है दिल
तो कहीं लाख दूरियों के बीच भी मनो का होता मेल है .."

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

एक मासूम की उलझन

कल रात की बात है मैं अपने बड़े बेटे को पढ़ाने के लिए उसके साथ बैठी थी ॥ जो की अप्रैल माह से क्लास २ में गया है ,तो मैंने पाया की स्कूल का जिक्र चलने से मेरा बेटा कुछ उदास सा हो गया ..मैंने कारन पूछा तो वह कुछ रुआसा सा हो गया फिर उसने बताया की उसके साथ क्लास १ में एक बच्ची पढ़ती थी , जो की उनके साथ क्लास २ में नहीं आ पाई , वह क्लास १ में ही रह गयी है , और इसमाह में क्लास १ सुबह ही छूट जाती है , किन्तु उस बच्ची का ऑटो पूरी छुट्टी होने पर २.०० बजे ही आता है , तो वह बच्ची बेचारी अकेली ही क्लास १ में बैठी रहती है ॥ चुकी वह बच्ची अपने पुराने सहपाठियों को ही जानती है , तो शायद इन्ही लोगो की क्लास में सहारा ढूँढ़ते हुए रोती हुई आ गयी ॥ लेकिन क्लास २ की शिक्षिका ने जब उसे देखा तो उसे क्लास १ में ही जाकर बैठने को कहा और अपनी क्लास से बहार निकालदिया ॥ मेरा बेटा यह बताते हुए सुबकने लगा था , उसे यह उलझन हो रही थी की वह बच्ची कैसे अकेले ४ घंटे उस क्लास में गुजारेगी यदि उसे किसी चीज़ की ज़रुरत पड़गयी तो वह किस्से मांगेगी ?
फिर उसने मुझ से पुछा की यदि आप शिक्षिका होती तो क्या उसे थोड़े समय के लिए बैठने देती ? मैंने कहा - हा , तो वह कुछ आश्वस्त सा नज़र आया ॥ मैं कुछ सोच में पड़ गयी ,लगा की इस मामले में कुछ करना चाहिए ,लेकिन यही लगा की इस बात को मैं फ़ोन पर शिक्षिका से कहू तोबड़ा अजीब लगेगा , और कहू भी तो किस अधिकार से कहू ? या स्कूल जाकर उनसे विनती करू , लेकिन यहाँ भी समस्या है ,की मुझे उसके लिए छुट्टी लेकर जाना पड़ेगा और किसी दुसरे बच्चे के बारे में बोलना उन्हें कुछ रासनहीं आये ॥ इक्षा होते हुए भी मैं इस मामले में कुछ न कर पाई सिवाय दुखी होने के ...

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010


काफी दिनों तक ब्लॉग जगत से दूर रही किन्तु इसका कारण जानकरआप सभी खुश हो जायेंगे ... कारण है द्वितीय पुत्र रत्नकी प्राप्ति , जो की अब ६ माह के हो चुके है ॥

आप भी देखिये छुटके को ....